कर्म प्रक्रिया
1. दीपन यदग्निकृत् पचेत् न आमं दीपनं तद्यथा घृतं। दीपनं ह्यग्निकृत्वामं कदाचित् पाचयेन्न वा।। (अ०ह० सू०15-अन्द०) जिस द्रव्य का सेवन करने से अग्नि का वर्धन हो लेकिन आम का पाचन न हो उसे ' दीपन ' कहते हैं, यथा-घृत । दीपन द्रव्य अग्नि का वर्धन करते हैं लेकिन कभी-कभी साथ में पाचन कर्म भी करते हैं। यथा - घृत , मिशि ( सौंफ ) , चव्य , चित्रक , सौंठ , मरिच , पिप्पली । 2. पाचन पचति आमं न वह्निं च कुर्यात् तद् हि पाचनम्। नागकेशरवत् विद्याद् । (शा०सं०पू०ख०अ० 4/2) जो द्रव्य आम अर्थात् अपक्व अन्नरस और मल को पकाये लेकिन जठराग्नि को दीप्त न करें उसे पाचन कहते हैं। दूसरे शब्दों में पाचन द्रव्यों में अग्नि दीप्त करने का गुण प्रधान रूप से नहीं होता। यथा नागकेसर, मुस्तक, सौंफ , चित्रक । 3. संशोधन स्थानाद् बहिर्नयेत् ऊर्ध्वमधो वा मलसंचयम्। देह संशोधनं तत् स्याद् देवदाली फलं यथा।। (शा०सं०पू०अ०4/9) जो द्रव्य मलों (पुरीष और दोषों) के संचय को उनके स्थान से चलायमान करके (हटा कर) ऊर्ध्व (ऊपर) और अधः (नीचे)-दोनों मार्गों से शरीर से बाहर निकाल दे उसे देह संशोधन द्रव्य कहते हैं और इस कर्म को संशोधन कर्म कहते हैं। यथा - देवदाली फल, अपामार्ग , अर्क , स्नुही , अश्मंतक । 4. संशमन न शोधयति यद्दोषान् समान्नोदीरयत्यपि। समीकरोति विषमान् शमनं तत् च सप्तधा॥ पाचनं दीपनं क्षुत्तड्व्यायामातपमारूताः । (अ०हु०सू०अ०14/6) जो कर्म या द्रव्य दोषों का शोधन (वमन-विरेचनादि द्वारा) नहीं करते और शरीर में सम अवस्था में विद्यमान दोषों को बढ़ाते नहीं (प्रकोषण नहीं करते) और विषम (बढ़े हुए) दोषों को शरीर में ही सन अवस्था में लाते हैं उन्हें 'शमन' कहते हैं। ये सात प्रकार के होते हैं- पाचन, दीपन, क्षुधा, तृषा, व्यायाम आतप (धूप) सेवन और वायु सेवन। यथा - अमृता ( गुडूची ), पटोल । 5. अनुलोम कृत्वा पाकं मलानां यद् भित्वा बन्धम् अधोनयेत् । तत् च अनुलोमनम् ज्ञेयं यथा प्रोक्ता हरीतकी।। (शा०सं०पू०अ० 4/4) जो कर्म या द्रव्य मलों का पाक करके उनके बन्ध को तोड़कर नीचे (अधोभाग) की ओर लाता है उसे अनुलोमन कहते हैं। जैसे - हरीतकी। 6. स्त्रंसन पक्तव्यं यद् अपक्त्वैव श्लिष्टं कोष्ठ मलादिकं । नयति अधः स्त्रंसनं तद्यथा स्यात् कृतमालकः । ।(पू०ख०4/5) जो द्रव्य कोष्ठ में चिपके हुए पकने योग्य अर्थात् अपक्व मलादि को…