HINGU
Botanical Name : Ferula foetida.
- Charaka Samhita : श्वासहर, दीपनीय, संज्ञास्थापन, कृमिघ्न महाकषाय।
- Sushruta Samhita : पिप्पल्यादि, ऊषकादि गण।
- Bhavaprakasha Nighantu : हरितक्यादि वर्ग।
Synonyms :
1. Valhika
2 Jatka
3. Ugragandha
4. Jantuana
5. Jantunashaka
6. Sahastravedhi
लैटिन-फरुला नार्थ एक्स ( Ferula narthex Boiss. ); संस्कृत- हिंगु, सहस्रवेधि ( हजारों कर्म करने वाला), जतुक (लाक्षा के समान ) बाह्लीक (बल्ख देशोत्पन्न ), रामठ ( रमठदेशोद्भव );
हिन्दी- बांग्ला- मराठी- कश्मीरी- हींग;
गुजराती- हींग,वधारणी;
तामिल- मलयालम – रुङ्गयम्;
तेलगु – इंगुवा;
फ़ारसी-अंगजह, अंगोज;
अरबी-हिल्तीत;
अंग्रेज़ी-असाफिटिडा ( Asafoetida) ।
External Morphology:
It is a perennial herb.
Roots-fusiform.
Stem-5-8 feet tall.
Leaves pubescent when young, ovate shaped, secondary and tertiary pinnate are decurrent, entire or very irregularly crenate-serate.
Inflorescence-Terminal compound umbel. Fruit reddish brown in colour.
Habitat:
Hingu is cultivated in Afghanistan and Iran. In India it is growing in Punjab and Kashmir.
Major Chemical constituents :
Asafoetida contain resin, gum, volatile oil Resin mainly contain asaresinotanol.Where as oil contains butyl propyl disulfide,
disulfides, trisulphides, pinene and terpenes.
Rasapanchaka :
Rasa : Katu, Tikta
Guna : Laghu, Tikshana
Veerya : Ushna
Vipaka : Katu
Doshakarama : Vata-kapha shamaka
Indications :
Aama vikar, Shula, Krimi, Shwasa, Hridaya vikar.
Part Used : Hingu-Niryasa (Exudates)
Doses: Churana 125-500mg.,
Yoga :
2. Hingutriguna Taila
3. Ayaskriti
4. Chitrakadi Vati।
6. Hingvadya Ghrita
Aamika Prayoga:
1. Madatya-Suvarchala salt should be mixed with Hingu and Maricha and given with madya.
2. Unmada-Ghee prepared with Hingu niryasa, Ela and Brahami may be used.
शोधन-
हिंगु का शोधन दो प्रकार से किया जाता है-
१. अभर्जित
२. भर्जित ।
प्रथम विधि में हींग को आठगुने जल में घोलकर छान लेते हैं।
फिर किसी स्निग्ध लोह पात्र में रख कर मन्द आँच से जलहीन करते हैं।
दूसरी विधि में हींग में गाय का घी देकर खूब भूनते हैं। जब शुष्क और खर हो जाती है तब उतारते हैं।
- उदर रोगों में भर्जित हींग एवं फुफ्फुस रोगों में कच्ची हींग देनी चाहिए। कच्ची हींग में अधिक तीक्ष्णता और छेदनशक्ति होती है जिससे इसका प्रभाव फुफ्फुस पर अधिक होता है।
उदर रोगों में ऐसी हींग उत्क्लेशकर और क्षोभक हो जाती है अतः उसे घृत भृष्ट करने के बाद ही प्रयोग करते हैं ।
अहित प्रभाव-यकृत् , मस्तिष्क एवं पित्त प्रकृति वालों के लिए यह अहितकर होता है।
निवारण-अनार, कतीरा, शतपुष्पा, सेव और चंदन ।